शख़्सियत

फिराक गोरखपुरी

फिराक गोरखपुरी (मूल नाम रघुपति सहाय) (२८ अगस्त १८९६ – ३ मार्च १९८२) उर्दू भाषा के प्रसिद्ध रचनाकार है। उनका जन्म गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में कायस्थ परिवार में हुआ। इनका मूल नाम रघुपति सहाय था। रामकृष्ण की कहानियों से शुरुआत के बाद की शिक्षा अरबी, फारसी और अंग्रेजी में हुई।

२९ जून, १९१४ को उनका विवाह प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में चुने गये। १९२० में नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े तथा डेढ़ वर्ष की जेल की सजा भी काटी।। जेल से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव की जगह दिला दी। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद अवर सचिव का पद छोड़ दिया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३० से लेकर १९५९ तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। १९७० में उनकी उर्दू काव्यकृति ‘गुले नग्‍़मा’ पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। फिराक जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे।

उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और उनकी नियुक्ति डिप्टी कलेक्टर के पद पर हो गयी | इसी बीच गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन छेड़ा तो फिराक उसमे सम्मिलित हो गये |नौकरी गयी और जेल की सजा मिली | कुछ दिनों तक वे आनन्दभवन , इलाहाबाद में पंडित नेहरु के सहायक के रूप में कांग्रेस का काम भी देखते रहे | बाद में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक के रूप में काम किया | फिराक गोरखपुरी (Firaq Gorakhpuri) ने बड़ी मात्रा में रचनाये की | उनकी शायरी बड़ी उच्चकोटि की मानी जाती है | वे बड़े निर्भीक शायर थे |

उनके कविता संग्रह “गुलेनगमा” पर 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरुस्कार का पुरुस्कार मिला और इसी रचना पर वे 1970 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित किये गये | 3 मार्च 1982 में फिराक साहब का 85 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया था | फिराक गोरखपुरी (Firaq Gorakhpuri) को उनके योगदान के लिए पद्मभूषण , जनपथ पुरुस्कार और साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित किया गया |

शायरी

फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूहे-कायनात, नग्म-ए-साज, गजालिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना फिराक साहब ने की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं।

साहित्यिक जीवन

फिराक ने अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन में आरंभिक समय में ६ दिसंबर, १९२६ को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बनाए गए। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नज़ीर अकबराबादी , इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। फिराक ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है।

दबंग शख्सियत

फिराक़ एक बेहद मुँहफट और दबंग शख्सियत थे। एक बार वे एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे, काफ़ी देर बाद उन्हें मंच पर आमंत्रित किया गया। फिराक़ ने माइक संभालते ही चुटकी ली और बोले, ‘हजरात! अभी आप कव्वाली सुन रहे थे अब कुछ शेर सुनिए’। इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लोग हमेशा फिराक़ और उनके सहपाठी अमरनाथ झा को लड़ा देने की कोशिश करते रहते थे। एक महफिल में फिराक़ और झा दोनों ही थे एक साहब दर्शकों को संबोधित करते हुए बोले,’फिराक़ साहब हर बात में झा साहब से कमतर हैं” इस पर फिराक़ तुरंत उठे और बोले, “भाई अमरनाथ मेरे गहरे दोस्त हैं और उनमें एक ख़ास खूबी है कि वो अपनी झूठी तारीफ बिलकुल पसंद नहीं करते”। फिराक़ की हाज़िर-जवाबी ने उन हज़रत का मिजाज़ दुरुस्त कर दिया।

पुरस्कार

उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में १९७० में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।

निधन

अपने अंतिम दिनों में जब शारीरिक अस्वस्थता निरंतर उन्हें घेर रही थी वो काफ़ी अकेले हो गए थे। अपने अकेलेपन को उन्होंने कुछ इस तरह बयां किया-

‘अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभूं लब खोले हैं,

पहले फिराक़ को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं’।

3 मार्च, 1892 में फ़िराक़ गोरखपुरी का देहांत हो गया। फिराक़ गोरखपुरी उर्दू नक्षत्र का वो जगमगाता सितारा हैं जिसकी रौशनी आज भी शायरी को एक नया मक़ा दे रही है। इस अलमस्त शायर की शायरी की गूँज हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी। बकौल फिराक़ ‘ऐ मौत आके ख़ामोश कर गई तू, सदियों दिलों के अन्दर हम गूंजते रहेंगे’।

Related Articles

Back to top button